Thursday, August 14, 2008

बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा

बिल्ली के भाग्य से छींका टूटाकहावत है कि बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा। जम्मू-कश्मीर में कुछ सियासी लोगों की हरकतों की वजह से पाकिस्तान की बन आई है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने पर पहले कश्मीर फिर जमीन वापस लेने के बाद जम्मू संभाग में हुए हिंसक आंदोलन। उसके बाद कश्मीर की आर्थिक नाकेबंदी के विरोध में कश्मीर के फल उत्पादकों का मुजफ्फराबाद मार्च और उस दौरान व उसके बाद हुई हिंसा को मु ा बनाकर पाकिस्तान इस मामले का अंतरराष्ट ्रीयकरण करने की फिराक में है। पहले पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने जम्मू-कश्मीर में सुरक्षाबलों की कार्रवाई को अनुचित बताया और कहा कि वहां हिंसा तुरंत बंद होनी चाहिए। कुरैशी के इस बयान पर भारत ने चेताया भी, लेकिन बुधवार को पाकिस्तान के विदेश विभाग के प्रव ता मोहम्मद सादिक ने मामले को अंतरराष्ट ्रीय समुदाय, खासकर संयु त राष्ट ्र, आर्गेनाइजेशन ऑफ इसलामिक कांफ्रेंस और मानवाधिकार संगठनों के पास ले जाने की धमकी दे दी। इस पर भारत के विदेश मंत्रालय के प्रव ता नवतेज सरना ने कहा कि पाकिस्तान की तरफ से लगाए जा रहे आरोप निराधार हैं। सरना ने कहा कि पिछले कुछ दिनों से जारी पाकिस्तानी बयानबाजी पर भारत को कड़ी आपत्ति है। अभी समय है कि पाकिस्तान बयानबाजी से बाज आए। दूसरी ओर संयु त राष्ट ्र के प्रव ता फरहान हक का कहना है कि संगठन अभी कश्मीर के ताजा हालात पर नजर रखे है। इस समय संयु त राष्ट ्र इस मु े पर कोई बयान जारी नहीं करेगा। संयु त राष्ट ्र के मानवाधिकार अधिकारी ताजा हालात से वाकिफ हैं और वे बयान जारी करने या नहीं करने पर विचार कर रहे हैं। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मामला कितना गंभीर होता जा रहा है। पाकिस्तान के बयान पर भारत को सख्त ऐतराज है। भारत ने चेतावनी भी दी है कि पाक जम्मू-कश्मीर मामले में दखलांदाजी न करे। यह भारत का आतंरिक मामला है। बेशक भारत कश्मीर को आतंरिक मामला मानता है, लेकिन यह तो समूची दुनिया को पता है कि पाकिस्तान और भारत के बीच कश्मीर को लेकर विवाद है। कश्मीर में फैले आतंकवाद और अलगाववाद से पूरा विश्व वाकिफ है। इस मसले पर जहां कुछ देश भारत का समर्थन करते हैं वहीं कुछ देश पाकिस्तान का। सभी देशों की अपनी-अपनी राजनयिक कूटनीति है। अब अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने और लेने को लेकर जो सियासत देश में की जा रही है उससे पाकिस्तान को मौका मिल गया है। वह इस मामले को अंतरराष्ट ्रीयकरण करके इसे हरा करना चाहता है। घाटी के अलगाववादी यही चाहते थे, जिसे हमारे कुछ सियासी नेता पूरा कर रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में अभी जो कुछ भी हो रहा है उसमें जमीन कोई मसला नहीं है। सूबे की सरकार ने जब वन विभाग की जमीन को श्राइन बोर्ड को दिया और उस पर जिस तरह से अलगाववादियों ने प्रतिक्रिया जाहिर की, उसी से जाहिर हो गया था कि यह गुट शांत हो रहे कश्मीर में कोई मु ा तलाश रहा है। जमीन देने से उसे एक मु ा मिल गया था, लेकिन गुलाम नबी आजाद सरकार ने जमीन वापस लेकर मामले को बढ़ने से बचा लिया। जाहिर सी बात थी कि यदि सरकार जमीन वापस न लेती तो अलगावादी इसे मु ा बनाकर अपनी रोटियां सेंकते। इस आशंका के तहत आजाद सरकार ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड से जमीन वापस ले ली। इसके बाद अमरनाथ को जमीन दिलाने के नाम पर कुछ लोग मैदान में आ गए। समूचा जम्मू संभाग आंदोलन की आग में झुलसने लगा। यही नहीं कुछ सियासी दल इसे पूरे देश में फैलाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। जम्मू संभाग के लोगांे का दर्द और था। वह अपनी उपेक्षा से आहत थे और इसे आवाज देना चाहते थे, लेकिन मामला ऐसे नाजुक माे़ड पर आ गया कि जहां से एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाईं नजर आने लगी। जम्मू वालों की असली पीड़ा तो दब गई और दूसरा मामला हावी हो गया। कुछ लोगों ने मामले को ऐसा रंग दिया जिससे यह मसला भारत की अंखड़ता के लिए संवेदनशील हो गया। दरअसल, आज जम्मू-कश्मीर में जो हालात हो गए हैं अलगाववादी और उनका आका पाकिस्तान ऐसे ही हालात की प्रतीक्षा में थे। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के नाम पर उन्होंने बवाल ही इसी लिया किया था। जब जमीन श्राइन बोर्ड से वापस ले ली गई तो उनके हाथ से मु ा निकल गया। लेकिन जब इस मसले पर सियासी दल मैदान में आ गए तो अलगावादियों को फिर बहाना मिल गया। अलगावादी विश्व समुदाय में यह संदेश देना चाहते थे कि हमारे प्रति भारत के लोग सही नहीं सोचते। हिंदुस्तानी यह तो चाहते हैं कि कश्मीर भारत में रहे, लेकिन कश्मीरी वहां न रहें। अपने इस सोच को वह अभिव्यि त देने में कामयाब रहे। लेकिन अपसोस कि इसमें उनका साथ दिया हमारे सियासी दलों ने। अब अलगावादियों केइसी नजरिये को पाकिस्तान अंतराष्ट ्रीय मंच पर उठाना चाहता है। सवाल उठता है कि जिस जमीन को लेकर आज जम्मू-कश्मीर जल रहा है वह इतनी अहम थी? जमीन दी गई थी फिर वापस ले ली गई इसलिए कि हालात न बिगड़ंे और किसी तीसरे को हाथ सेंकने का मौका न मिले। बाबा अमरनाथ की यात्रा पर तो रोक लगाई नहीं गई थी। अमरनाथ की यात्रा कराना केंद्र और राज्य सरकार का फर्ज है। और वह कराती भी है। यह यात्रा साल में दो माह के लिए होती है। इससे कश्मीरियों को भी आमदनी होती है। वह भी इसमें बढ़चढ़कर भाग लेते हैं। यात्रियों को सुविधा मिले इससे कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन कथित विवादित जमीन मिल जाने से ही यात्रियों को सुविधा मिल जाएगी, इसमें संदेह जरूर है। यात्रा का अलगववादियों ने भी विरोध नहीं किया है। लेकिन जमीन लेने के नाम पर जम्मू सहित पूरे देश में जिस तरह से हंगामा किया जा रहा है उससे यही लगता है कि जैसे अब अमरनाथ यात्रा हो ही नहीं पाएगी। कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए मामले का सियासीकरण कर दिया। कुछ लोग भावनाआें के नाम पर ही सियासत करते हैं। उनका पूरा वजूद ही इसी पर टिका है। यह लोग किसी की भावनाएं आहत करते हैं तो किसी की आहत होने पर हंगामा करते हैं। इन लोगों ने जमीन पर विवाद खड़ा करने से पहले यह नहीं सोचा कि देश का यह भाग आतंकवाद की आग में पहले से ही जल रहा है। पाकिस्तान की इस पर गिद्ध निगाह है। उसके पिठ्ठ ू कंधे पर बंदूक रखकर घूम रहे हैं। यदि मामले को तूल दिया गया तो पाकिस्तान को हाथ सेंकने का मौका मिल जाएगा। बाबरी मसजिद का मामला राष्ट ्रीय था। इसलिए उसे लेकर जो कुछ भी हुआ वह किसी हद तक देश तक सीमित रहा। हालांकि उसकी प्रतिक्रिया भी अंतरराष्ट ्रीय स्तर पर हुई और विश्व भर में फैले हिंदुआें को उसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। फिर भी यह मामला ऐसा नहीं था कि कोई देश इसे अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश करता। लेकिन कश्मीर का मामला ऐसा नहीं है। इसलिए वहां पर ऐसी किसी भी हरकत पर विश्वभर के देशों की निगाह होती है। पाकिस्तान उसे भुनाने की पूरी कोशिश करता है। इस समय वह इसी मुहिम में लगा है। अमरनाथ जमीन विवाद पर हो रहे देशव्यापी आंदोलन ने उसे बोलने का मौका दिया है। इससे कश्मीर में बह रही अमन की हवा में भी आग लग गई है। आंदोलनरत जम्मू के लोगों का दर्द समझा जा सकता है। आजादी के बाद से ही उनकी उपेक्षा की गई है। केंद्र और राज्य सरकारें हमेशा कश्मीर को ही तवज्जो देती रही हैं। यह उनकी मजबूरी भी रही है, योंकि पाकिस्तान की वजह से कश्मीर में अलगावादियों की एक जमात बन गई थी। वह और न फैले इसके लिए कुछ कदम ऐसे उठाने पड़ते थे जिससे तुष्टि करण की बू आती थी या आती है, लेकिन यह सरकार की मजबूरी है। मामले की संवेदनशीलता उसे विवश करती है। कम से कम मुझे ऐसा लगता है। लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि जम्मू संभाग की उपेक्षा की जाए। यदि की गई है तो उसे दूर किया जाना ही चाहिए। अपनी उपेक्षा के कारण जम्मू के लोगों का आंदोलनरत होना स्वाभाविक है। उन्हें अपनी बात कहने का एक मौका मिला और उन्होंने अपनी भावनाआें को व्य त किया। उनकी मांगों और भावनाआें को समझा जा सकता है। लेकिन सियासी लोग उनकी भावनाआें का सत्ता के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। यह खतरनाक है। जाहिर है कि एक सही आंदोलन गलत दिशा में निकल गया है। जिसका लाभ सियासी दल उठा रहे हैं। यदि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने पर उसका विरोध करने वाले गलत थे तो जमीन वापस लेने के बाद उसका विरोध करने वाले भी गलत ही हैं। जमीन वापस लेने का विरोध करने वालों को समझना चाहिए कि घाटी के अलगावादी माहौल खराब करके धरती के इस स्वर्ग को बांटना चाहते हैं। हमें उनकी असली मंशा को समझना होगा। हम ऐसा मौका यों दी जिसका उन्हें लाभ हो? शायद भगवान शंकर ने जब कैलाश पर्वत को अपना डेरा बनाया होगा तो यही सोचकर कि वहां तक कम लोग ही पहंुचे। यही कारण रहा होगा कि वह दुर्गम पहाड़ पर रहने लगे। उन्होंने यह नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन के लिए उनके भ त इतनी सुविधा चाहेंगे कि कुछ गज जमीन के लिए आंदोलन पर उतर आएंगे। सुविधाआें की कोई सीमा नहीं होती। आज बाबा अमरनाथ का दर्शन करने लोग हेलीकॉप्टर से जाते हैं। इसका प्रभाव यह पड़ा कि अमरनाथ गुफा में बनने वाला हिमशिवलिंग समय से पहले ही पिघल जाता है। मानव जब सुविधाएं खोजता है तो प्रकृति से छे़डछाड़ करता है, जोकि प्रकृति प्रेमी भगवान शिव को पसंद नहीं है। यदि हेलीकॉप्टर सेवा को उन्होंने पसंद नहीं किया तो वन को काटकर बनाई जा रही सुविधाएं भी उन्हें पसंद नहीं आएंगी।
साभार --- ओम प्रकाश तिवारी

Sunday, August 3, 2008

अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो..

अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो॥ इस गीत के बोल एक बेटी की व्यथा को खुद व खुद बयां कर रहे है। समाज में बेटी के लिए सोच बदली तो है लेकिन कितनी बदलती है यह बहस का मुद्दा है। पर बेटी के मन की बात शब्दों का रूप ले भी ले तब भी समाज को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि आज भी बेटी को जन्म से पहले ही मारने का सिलसिला जारी है। कितने सेमिनार, कांफ्रेस और कैंप लगा कर लोगों को जागरूक किया जा रहा है, लेकिन घंटे आधे घंटे के भाषण में लोगों की सोच पर ज्यादा फर्क नहीं पड रहा। चाहे सरकार ने कानून बना दिए है, लेकिन डाक्टर खुद चंद रूपये के लिए पाप के भागीदार बन रहे है। क्या बेटी सच में मां बाप पर इतना बोझ बनती जा रही है कि उसको जन्म से पहले ही मार दिया जा रहा है। कितने गीतकारों ने अपनी कलम के माध्मम से अजन्मी बेटी के मन की बात को उजागर किया, कितने गायकों ने उसे अपनी सुरीली आवाज में लोगों पर पहुंचाया। फिर भी लोग बेटी को मारने के लिए वह पत्थर के दिल और खून से रंगे डाक्टर के हाथ कंपकपाते नहीं है। आज हर तरफ बेटियों ने अपना रूतबा कायम किया है। पर पुरूष प्रधान समाज को यह बात स्विकार करने में अभी वक्त लगेगा। मेरी इन शब्दों से लोगों को बुरा लग सकता है, पर सच्चाई यहीं है कि बेटी का खुद की समाज में पहचान बनाना हजम नहीं हो पा रहा। बेटे को तो सभी हक खुद ब खुद दे दिए जाते है, पर बेटी के लिए नजरिया आज भी सदियों पुराना है। बेटा कुछ भी करें सब माफ, बेटी जरा सी गल्ती पर बैठे तो खान-दान की दुहाई। एक तरह तो कहते है कि बेटे से खानदान का नाम रोशन करता है, फिर सिर्फ बेटियों पर पाबंदियां क्यो? बेटी मायके में है तो हर बात के लिए पिता या भाई से इज्जात जरूरी। बचपन से उसके मन में एक बात परिवार के सदस्य के जुबान पर होती है, जो करना है अपने घर जाकर करना। क्या कहेंगे वो यही सिखाया मां-बाप ने। बेटी अरमानों के साथ ससुराल में कदम रखती है, वहां पर भी उसके लिए अपना घर उसे कहीं नजर नहीं आता। अपनी मर्जी से कुछ कर लिया तो वहीं बात अपने घर क्या ऐसा करती थी। पराए घर की है न इसलिए कुछ पता नहीं इसको। फिर सवाल वहीं कि अपने के बीच रह कर बेटी का अपना घर कौन सा है। चारों तरफ उसके अपने है, पर अपनों की भीड़ में वह खुद को पराया महसूस करती है। आखिर कब बदलेगी बेटी के लिए समाज की धारना। आखिर कब मिलेगा उसे अपने घर का आसरा। मेरी बातें लोगों को पसंद नहीं आएगी, लेकिन क्या कोई बता सकता है बेटी का अपना घर कौन सा है। दोनों परिवार अपने है बेटी के लेकिन बेटी किसी की अपनी क्यों नहीं?
साभार ---- मीडिया नारद, रजनी

क्या भारत नपुंसक है?

इस बार के इंडिया टुडे का शीर्षक है यह। पत्रिका ने धीरज खोते हुए लिख दिया है कि इंडिया नपुंसक है। लेकिन शीर्षक व्यापक बहस की मांग करती है। आतंकवाद को खुल कर मज़हबी नाम देते हुए कहा गया है कि भारत में इस्लामिक आतंकवाद से निबटने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। पत्रिका के लेख में एक किस्म की बेचैनी दिखती है जो कई लोगों की भी हो सकती है। खासकर ऐसे वक्त में जब हर धमाका हमारे आपके बीच से किसी अज़ीज़ को अपाहिज़ बना देता है,मार देता है। लेकिन एक भी धमाका ऐसा नहीं गुज़रा जो इस्लाम के नाम पर हुए इस आतंकवाद के खिलाफ जनता में हिंदू और मुसलमान के हिसाब से फर्क कर दे। हर धमाके का दर्द दोनों समुदायों ने बराबरी से भुगता है और मिलकर एक दूसरे की मदद की है। संवेदनशील कहे जाने वाराणसी से लेकर मालेगांव और आर्थिक प्रगतिशील कहे जाने वाले हैदराबाद से लेकर बंगलूरु तक में धमाके के बाद कहीं हिंदू मुस्लिम की बात नहीं हुई। इस्लाम के नाम पर आतंकवाद और इस्लामी आतंकवाद में क्या फर्क है बहस करने वाले तय करेंगे। लेकिन एक ऐसे वक्त में नपुंसकता का एलान करना कहां तक ठीक है। जब देश का हर मुस्लिम नेता या मौलाना यह कह रहा हो कि इस्माल का संबंध आतंकवाद से नहीं है। देवबंद से लेकर अहमदाबाद और दिल्ली तक में रैलियां निकाल कर इसका एलान किया गया कि इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने वालों की इस्लाम में क्या दुनिया में कोई जगह नहीं है। जयपुर धमाके बाद जब ईमेल आया तो उसमें कुछ मौलानाओं को भी निशाना बनाने की बात कही गई जो आतंकवाद का विरोध करते हैं। साफ है मुस्लिम समाज खुल कर इसकी निंदा कर रहा है। पहले भी शामिल नहीं था लेकिन सार्वजनिक निंदा इसलिए कर रहा है ताकि याद रहे कि मुसलमानों ने इसकी निंदा की है। याद रहे कि अहमदाबाद के धमाके के बाद लखनऊ में आतंकवादियों के लिए बददुआ पढी गई। ज़ाहिर है कोई व्यक्ति या छोटा सा समूह किसी के इशारे पर चलने पर कामयाब हो रहा है। मगर यह कहना कि इसके पीछे मुसलमान हैं या इस्लाम हैं इसकी ठीक से पड़ताल होनी चाहिए। रही बात इंडिया के नपुंसकता की तो नपुंसक कौन है। क्या भारत के लोग नपुंसक हैं। या फिर सरकार नपुंसक है या फिर वो जनता नपुंसक है जो ऐसी सरकार चुनती है या फिर नपुंसक जनता ने तो मोदी की सरकार भी चुना। जो एलान करते रहे कि गुजरात से आंतकवाद का नामोनिशान मिटा दिया। आतंकवाद के नाम पर खास समुदाय को आतंकवाद समर्थक बता कर ज़लील करते रहे। और जब दुखद घटना हुई तो वहीं के अखबारों ने लिखना शुरु कर दिया कि बम निरोधक दस्ते से लेकर खुफिया एजेंसियों तक में लोग नहीं हैं। न अफसर न जासूस। तो फिर मोदी किस तैयारी के दम पर कह रहे थे कि उन्होंने आतंकवाद को मिटा दिया। अब क्या जवाब है उनके पास। पोटा नहीं है तो पुलिस तो है। और जनाब ने तो उस पुलिस का भी बंटाधार कर रखा है। क्या हर चीज़ को मर्दानगी और नपुंसकता के पैमाने पर देखा जा सकता है। क्या मोदी की मर्दानगी काम आई या फिर ऐसा मर्द चुनने में किसका कसूर था जिसने अपने शानदार कार्यकाल में कोई सशक्त एजेंसी तैयार नहीं की जो ऐसे आतंकवादी मंसूबों को कामयाब ही न होने दे। क्या पोटा के रहते जसवंत सिंह अपनी कार में अज़हर मसूद को लेकर कंधार नहीं गए। क्या पोटा के रहते संसद सुरक्षित रह सकी। क्या किया गुजरात की सरकार ने। उनके मंत्री के इस बयान के अलावा कि आतंकवादी हमेशा एक कदम आगे सोचते हैं। आतंकवाद का मसला है तो राजनीति होगी। अमेरिका में भी राजनीति होती है इंडिया में भी होगी। इस्लामी आतंकवाद होता तो मालेगांव की मस्जिद से लेकर हैदराबाद की मक्का मस्जिद तक में धमाके क्यों होते? क्या अजमेर शरीफ में धमाका होता? कट्टर इस्लाम मस्जिदों को पाक साफ करने की हिदायत देता रहता उन्हें मिटा देने की साहस उसमें भी नहीं है। वो कितना भी कट्टर क्यों न हो जिस दिन अल्लाह के ख़िलाफ हो जाएगा,उसकी इबादत की जगह के खिलाफ हो जाएगा,इस्लाम के नाम पर मरने वाले दो चार लोग भी न मिलेंगे। फिर ऐसा क्यों हुआ कि सभी आतंकवादी हमलों में हिंदू मुसलमान दोनों मारे गए। आखिर नपुंसक कौन है। अगर इंडिया को नपुंसकता मिटानी है तो क्यों न वो दूसरी चीजों में भी मिटाये। भ्रष्ट नेता संसद की देहरी तक आ जाते हैं,भ्रष्ट नेता पार्टी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए पैसा ले लेते हैं,बीजेपी को अपने आठ आठ सांसदों को बिक जाने के आरोप में निकालना पड़ता है,कांग्रेस को चुप रहना पड़ता है कि उसने पैसे दिये या नहीं दिये। मनमोहन सिंह इस दाग पर चुप्पी साध जाते हैं। क्या भारत की जनता नपुंसक इस बात के लिए नहीं है कि वह हर दिन टूटी सड़क देखती है लेकिन राम के नाम पर या पगड़ी के नाम पर या जाति के नाम पर उसी विधायक को वोट दे देती है जो घूस खाने के लिए सड़क को खराब हाल में छोड़ देता है। क्या पूरे भारत को नपुंसक कहना ठीक है। सरकार नपुंसक हो सकती है, पुलिस हो सकती है,कोई नेता हो सकता है लेकिन पुरा इंडिया। कहीं भड़काने का तो खेल नहीं चल रहा।सवाल यह नहीं कि हम नामर्द हैं। सवाल यह है कि हम क्या कर रहे हैं। और कैसे तय करें कि कौन ठीक कर रहा है इसके लिए तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बेहतर रास्ता क्या हो सकता है। सुषमा स्वराज अपना बयान वापस ले लेती हैं कि यूपीए के घूस कांड से ध्यान बंटाने के लिए अहमदाबाद में धमाके हुए। जब निंदा हुई तो व्यक्तिगत विचार कह कर उस बयान पर बनी रहती हैं। बदलाव इतना आया है कि यह बयान अब बीजेपी का नहीं है लेकिन सुष्मा स्वराज का है जो बीजेपी की हैं। ऐसा भी नहीं है कि भारत के लोगों ने आतंकवाद का मिल कर सामना नहीं किया है। इस्लाम से पहले इस देश में आतंकवाद सिख धर्म के नाम पर आया। तब इस हिसाब से सिखों को सबक सिखाने के लिए दिल्ली में जो कत्लेआम हुआ क्या उसे ठीक कहा जा सकता है। क्या उसे कहा जा सकता है कि ये रही हमारी मर्दानगी। हम जल्दी भूल जाते हैं। आतंकवाद का मसला व्यवस्था के फेल होने का मसला है। भारत की नपुंसकता का मसला नहीं है। व्यवस्था यूपी से लेकर आंध्र और अब गुजरात में भी फेल हुई है। अच्छा है मिल कर राजनेता कुछ करें। वर्ना सुष्मा स्वराज की तरह व्यक्ति बयानों के दम पर या नपुंसकता या मर्दानगी की हुंकारे भरने से समस्याएं दूर नहीं होती।
साभार ---- कस्बा
लेखक --- रविश कुमार